मदिरा तो मृगतृष्णा है

कुछ प्याले टूटे फूटे से,
लुढ़के और बिखरे बिखरे से… 
ठोकर खाते है यहाँ वहां,
मधुशाला के इन कोनों में.... 

मदिरा पिने वालों को,
इन प्यालों से कोई बैर नहीं,
पर ये भी सच है की इनमे,
नहीं अपना कोई  हैं गैर सभी। 

उन टूटे प्यालों के टुकड़ों में,
कोई अक्स नहीं,कोई शख्स नहीं ,
कुछ टूटे सपनों का दर्द तो  है,
पर  कल के सच्चे ख्वाब नहीं।

यूँ भटक रहे से लोगों में,
एक भीड़ तो है पर झुण्ड नही,
मदिरा से उन्मत समूहों में,
उल्लास तो है आनंद नहीं।

ये मदिरा तो मृगतृष्णा है,
जो भरी ह्रदय के प्यालों में,
कुछ भर के जैसे छलक रही,
कुछ लुढ़की है देखों नालों में … 


2 comments:

Anonymous said...
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