मेरे छोटे बचपन का,
अपने अम्बर को छूना,
संग ले कोना इस मन का...
दोस्तों के संग खेलना,
मुझको जब बहुत भाता था,
माँ को ऊँचे आसमान का,
सपना बहुत सताता था...
जब मैं स्कूल थी जाती,
पापा छोड़ने जाते थे,
एक बड़ी कार में मुझको,
देखने की चाह सजाते थे....
बड़ी हुई मैं जब तब,
उनके सपने रंग लाये थे,
अपने पैरों के लिए मैंने,
ठोस धरातल बनाये थे...
आसमान में उड़ने की ,
आई जब मेरी बारी थी,
माँ ने पंखों की जगह,
डोली मेरी सजाई थी...
उनके आसमान की ऊँचाई,
मैं तो छु पाई थी,
अब नए रिश्तों में पाने को,
सागर की गहराई थी....
भूल आसमान को मुझको,
सागर में गोते लगाना है,
इन गहराइयों में मैंने,
सच्चा मोती पाना है...
सबके सागर आसमान में,
अपना अस्तित्व भुलाया है,
पर इन दोनों में मिलकर जैसे,
मैंने अपना क्षितिज बनाया है..