क्षितिज

एक नन्हा सा सपना था,
मेरे छोटे बचपन का,
अपने अम्बर को छूना,
संग ले कोना इस मन का...

दोस्तों के संग खेलना,
मुझको जब बहुत भाता था,
माँ को ऊँचे आसमान का,
सपना बहुत सताता था...

जब मैं स्कूल थी जाती,
पापा छोड़ने जाते थे,
एक बड़ी कार में मुझको,
देखने की चाह सजाते थे....

बड़ी हुई मैं जब तब,
उनके सपने रंग लाये थे,
अपने पैरों के लिए मैंने,
ठोस धरातल बनाये थे...

आसमान में उड़ने की ,
आई जब मेरी बारी थी,
माँ ने पंखों की जगह,
डोली मेरी सजाई थी...

उनके आसमान की ऊँचाई,
मैं तो छु पाई थी,
अब नए रिश्तों में पाने को,
सागर की गहराई थी....

भूल आसमान को मुझको,
सागर में गोते लगाना है,
इन गहराइयों में मैंने,
सच्चा मोती पाना है...

सबके सागर आसमान में,
अपना अस्तित्व भुलाया है,
पर इन दोनों में मिलकर जैसे,
मैंने अपना क्षितिज बनाया है..

मदिरा तो मृगतृष्णा है

कुछ प्याले टूटे फूटे से,
लुढ़के और बिखरे बिखरे से… 
ठोकर खाते है यहाँ वहां,
मधुशाला के इन कोनों में.... 

मदिरा पिने वालों को,
इन प्यालों से कोई बैर नहीं,
पर ये भी सच है की इनमे,
नहीं अपना कोई  हैं गैर सभी। 

उन टूटे प्यालों के टुकड़ों में,
कोई अक्स नहीं,कोई शख्स नहीं ,
कुछ टूटे सपनों का दर्द तो  है,
पर  कल के सच्चे ख्वाब नहीं।

यूँ भटक रहे से लोगों में,
एक भीड़ तो है पर झुण्ड नही,
मदिरा से उन्मत समूहों में,
उल्लास तो है आनंद नहीं।

ये मदिरा तो मृगतृष्णा है,
जो भरी ह्रदय के प्यालों में,
कुछ भर के जैसे छलक रही,
कुछ लुढ़की है देखों नालों में … 


जो चिर काल तक संग रहे

कुछ ऐसा ढूंढ़ रही हूँ मैं,
जो चिर काल तक संग रहे,
वो जो बदले कोई रंग नविन,
तो  जीवन सतरंगी कर दे…

एक हँसी कि जिसकी सरगम में,
जलतरंग का सुकून सा हो,
एक अग्नि जिसके ताप में भी,
ऊष्मा हो लेकिन जलन न हो.…

वो स्वप्न मेरा मिल जाए तो,
ये मन भी एक कोना ढूंढ़े,
वरना इस दुर्गम राह में,
ये राही घाट घाट भटके।

मैं चाहूँ इसको भी पाना,
वो भी तो छोड़ ना पाऊँ मैं,
क्यों मैं उस पल हंसना चाहूँ ,
जब आँखें आंसूं से गीली हों .

नहीं और चाहिए मृगतृष्णा ,
अपनों का  ना  कभी परित्याग करूँ ,
संभवत: ना हर स्वप्न पा जाऊं ,
जिसकी मैं खुद से आस करूँ।

दुविधा अब नहीं चाहिए मुझे,
मैं हर विकल्प का त्याग करूँ ,
जो चिर काल तक संग रहे,
उस स्वप्न का अब आह्वान करूँ।

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